शनिवार, 24 जुलाई 2010

चुपके-चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है / हसरत मोहानी

चुपके-चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है
हमको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है

बा-हज़ाराँ इज़्तराब-ओ-सद हज़ाराँ इश्तियाक़[1]
तुझसे वो पहले-पहल दिल का लगाना याद है

तुझसे मिलते ही वो बेबाक हो जाना मेरा
और तेरा दाँतों में वो उँगली दबाना याद है

खेंच लेना वोह मेरा परदे का कोना दफ़तन[2]
और दुपट्टे से तेरा वो मुँह छुपाना याद है

जानकार सोता तुझे वो क़स्दे पा-बोसी[3] मेरा
और तेरा ठुकरा के सर वो मुस्कराना याद है

तुझको जब तन्हा कभी पाना तो अज़ राहे-लिहाज़
हाले दिल बातों ही बातों में जताना याद है

जब सिवा मेरे तुम्हारा कोई दीवाना न था
सच कहो क्या तुमको भी वो कारख़ाना [4] याद है

ग़ैर की नज़रों से बच कर सबकी मरज़ी के ख़िलाफ़
वो तेरा चोरी छिपे रातों को आना याद है

आ गया गर बस्ल की शब[5] भी कहीं ज़िक्रे-फ़िराक़[6]
वो तेरा रो-रो के मुझको भी रुलाना याद है

दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए
वो तेरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है

देखना मुझको जो बरगशता तो सौ-सौ नाज़ से
जब मना लेना तो फिर ख़ुद रूठ जाना याद है

चोरी-चोरी हम से तुम आ कर मिले थे जिस जगह
मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है

बावजूदे-इद्दआ-ए-इत्तिक़ा[7] ‘हसरत’ मुझे
आज तक अहद-ए-हवस का वो ज़माना याद है


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