शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

त्रिवेणी / गुलज़ार

1 कभी कभी बाजा़र में यूँ भी हो जाता है
 क़ीमत ठीक थी,जेब में इतने दाम नहीं थे

ऐसे ही इक बार मैं तुम को हार आया था।


2 वह मेरे साथ ही था दूर तक मगर इक दिन
जो मुड़ के देखा तो वह दोस्त मेरे साथ न था

फटी हो जेब तो कुछ सिक्के खो भी जाते हैं।

3 इतनी लम्बी अंगड़ाई ली लड़की ने
शोले जैसे सूरज पर जा हाथ लगा

छाले जैसा चांद पडा़ है उंगली पर!


4 चूड़ी के टुकड़े थे,पैर में चुभते ही खूँ बह निकला
नंगे पाँव खेल रहा था,लड़का अपने आँगन में

बाप ने कल दारू पी के माँ की बाँह मरोड़ी थी!

5 कांटे वाली तार पे किसने गीले कपड़े टांगे हैं
ख़ून टपकता रहता है और नाली में बह जाता है

क्यों इस फौ़जी की बेवा हर रोज़ ये वर्दी धोती है।

6 तुम्हारे होंठ बहुत खु़श्क खु़श्क रहते हैं
इन्हीं लबों पे कभी ताज़ा शे’र मिलते थे

ये तुमने होंठों पे अफसाने रख लिये कब से?

रोटी या रश्‍दी : जब्बार ढांकवाला

मैं कहता हूँ रोटी
वे कहते हैं रश्दी
मैं कहता हूँ रोज़ी का क्या होगा
वे पूछते हैं
भाषा कौन सी रहेगी
मैं कहता हूँ
तालीम बढ़ाओ
वे मांगते हैं
मदरसे की तामीर का चंदा
मैं कहता हूँ
सुनो वक़्त की आवाज़
मैं समझाता हूँ
कीचड़ से कीचड़ को
नहीं धो पाओगे
वे फरमाते
ईट का जवाब
पत्थर से नहीं देंगे
तो मिट जायेंगे
मैं कहता हूँ
जुडो अपनी ज़मीन से
वे बताते  हैं
दुनिया में फैली
बिरादरी की दास्तान
मैं कहता हूँ
आओ बहस करें
कहाँ जाना है
कैसे जाना है
वे हुक्मनामा थमाते हैं
सब कुछ तय हो चुका है
कई सदियों पहले
मैं आगे कुछ बोलूं
इससे पहले
वे उठाते हैं ढेले
जो जमा किये गए थे
संभावित आक्रान्ताओं के ख़िलाफ़
सर से पाँव तक
टीले उभर आये हैं
मेरे जिस्म पर
और वे खुश हैं कि
जंग जीत ली है उन्होंने