सोमवार, 28 मार्च 2011

निर्मला पुतुल


निर्मला पुतुल

उतनी दूर मत ब्याहना बाबा !
बाबा!
मुझे उतनी दूर मत ब्याहना
जहाँ मुझसे मिलने जाने ख़ातिर
घर की बकरियाँ बेचनी पड़े तुम्हे

मत ब्याहना उस देश में
जहाँ आदमी से ज़्यादा
ईश्वर बसते हों

जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ
वहाँ मत कर आना मेरा लगन

वहाँ तो कतई नही
जहाँ की सड़कों पर
मान से भी ज़्यादा तेज़ दौड़ती हों मोटर-गाडियाँ
ऊँचे-ऊँचे मकान
और दुकानें हों बड़ी-बड़ी


उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता
जिस घर में बड़ा-सा खुला आँगन न हो
मुर्गे की बाँग पर जहाँ होती ना हो सुबह
और शाम पिछवाडे से जहाँ
पहाडी पर डूबता सूरज ना दिखे ।

मत चुनना ऐसा वर
जो पोचाई और हंडिया में
डूबा रहता हो अक्सर

काहिल निकम्मा हो
माहिर हो मेले से लड़कियाँ उड़ा ले जाने में
ऐसा वर मत चुनना मेरी ख़ातिर

कोई थारी लोटा तो नहीं
कि बाद में जब चाहूँगी बदल लूँगी
अच्छा-ख़राब होने पर

जो बात-बात में
बात करे लाठी-डंडे की
निकाले तीर-धनुष कुल्हाडी
जब चाहे चला जाए बंगाल, आसाम, कश्मीर
ऐसा वर नहीं चाहिए मुझे
और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ
जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाया
फसलें नहीं उगाई जिन हाथों ने
जिन हाथों ने नहीं दिया कभी किसी का साथ
किसी का बोझ नही उठाया

और तो और
जो हाथ लिखना नहीं जानता हो "ह" से हाथ
उसके हाथ में मत देना कभी मेरा हाथ

ब्याहना तो वहाँ ब्याहना
जहाँ सुबह जाकर
शाम को लौट सको पैदल

मैं कभी दुःख में रोऊँ इस घाट
तो उस घाट नदी में स्नान करते तुम
सुनकर आ सको मेरा करुण विलाप.....

महुआ का लट और
खजूर का गुड़ बनाकर भेज सकूँ सन्देश
तुम्हारी ख़ातिर
उधर से आते-जाते किसी के हाथ
भेज सकूँ कद्दू-कोहडा, खेखसा, बरबट्टी,
समय-समय पर गोगो के लिए भी

मेला हाट जाते-जाते
मिल सके कोई अपना जो
बता सके घर-गाँव का हाल-चाल
चितकबरी गैया के ब्याने की ख़बर
दे सके जो कोई उधर से गुजरते
ऐसी जगह में ब्याहना मुझे

उस देश ब्याहना
जहाँ ईश्वर कम आदमी ज़्यादा रहते हों
बकरी और शेर
एक घाट पर पानी पीते हों जहाँ
वहीं ब्याहना मुझे !

उसी के संग ब्याहना जो
कबूतर के जोड़ और पंडुक पक्षी की तरह
रहे हरदम साथ
घर-बाहर खेतों में काम करने से लेकर
रात सुख-दुःख बाँटने तक

चुनना वर ऐसा
जो बजाता हों बाँसुरी सुरीली
और ढोल-मांदर बजाने में हो पारंगत

बसंत के दिनों में ला सके जो रोज़
मेरे जूड़े की ख़ातिर पलाश के फूल

जिससे खाया नहीं जाए
मेरे भूखे रहने पर
उसी से ब्याहना मुझे ।
बाँस
बाँस कहाँ नहीं होता है
जंगल हो या पहाड़
हर जगह दिखता है बाँस

बाँस जो कभी छप्पर में लगता है तो कभी
तम्बू का खूँटा बनता है
कभी बाँसुरी बनता है तो कभी डण्डा
सूप, डलिया हो पंखा
सब में बास का उपयोग होता है।

बाँस की ख़ासियत भी अजीब है
जो बिना खाद-पानी के भी बढ़ जाता है
उसकी कोई देखभाल नहीं करनी पड़ती है
बस, जहाँ लगा दो लग जाता है

पर बुजुर्गों का कहना है कि
कुँवारे लड़के-लड़कियों को इसे नहीं लगाना चाहिए
नहीं तो हमेशा बाँझ ही रह जाएंगे।

बाँस जहाँ भी होता है
अपनी ऊँचाई का अहसास कराता है
जहाँ अन्य पेड़ बौने पड़ जाते हैं

बाँस को लेकर कई अवधारणाएँ हैं
आदिवसियों की कुछ और ग़ैरआदिवासियों की कुछ
चूँकि बाँस के सम्बन्ध में आदिवासियों की धारणा
सबसे महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय है।

बाँस को लेकर कई मुहावरे हैं
जिसमें एक मुहावरा किसी को बाँस करना है
जो इन दिनों सर्वाधिक चर्चित मुहावरा है

अब इस बाँस करना में कई अर्थ हो सकते हैं
यह आदमी पर निर्भर करता है कि
इसका कौन कैसा अर्थ लेता है।

यदि मैं आपको कहूँ
आपके बाँस कर दूँगी
तो अब आप ही बताएँ कि
इसका क्या अर्थ लेंगे।
तुम्हें आपत्ति है
तुम कहते हो
मेरी सोच ग़लत है
चीज़ों और मुद्दों को
देखने का नज़रिया ठीक नहीं है मेरा

आपत्ति है तुम्हें
मेरे विरोध जताने के तरीके पर
तुम्हारा मानना है कि
इतनी ऊँची आवाज़ में बोलना
हम स्त्रियों को शोभा नहीं देता

धारणा है तुम्हारी कि
स्त्री होने की अपनी एक मर्यादा होती है
अपनी एक सीमा होती है स्त्रियों की
सहनशक्ति होनी चाहिए उसमें
मीठा बोलना चाहिए
लाख कडुवाहट के बावजूद

पर यह कैसे संभव है कि
हम तुम्हारे बने बनाए फ्रेम में जड़ जाएँ
ढल जाएँ मनमाफिक तुम्हारे सांचे में

कैसे संभव है कि
तुम्हारी तरह ही सोचें सब कुछ
देखें तुम्हारी ही नज़र से दुनिया
और उसके कारोबार को

तुम्हारी तरह ही बोलें
तुम्हारे बीच रहते ।
कैसे संभव है ?

मैंने तो चाहा था साथ चलना
मिल बैठकर साथ तुम्हारे
सोचना चाहती थी कुछ
करना चाहती थी कुछ नया
गढ़ना चाहती थी बस्ती का नया मानचित्र
एक योजना बनाना चाहती थी
जो योजना की तरह नहीं होती
पर अफ़सोस !
तुम मेरे साथ बैठकर
बस्ती के बारे में कम
और मेरे बारे में ज़्यादा सोचते रहे

बस्ती का मानचित्र गढ़ने की बजाय
गढ़ते रहे अपने भीतर मेरी तस्वीर
और बनाते रहे मुझ तक पहुँचने की योजनाएँ
हँसने की बात पर
जब हँसते खुलकर साथ तुम्हारे
तुम उसका ग़लत मतलब निकालते
बुनते रहे रात-रात भर सपने

और अपने आसपास के मुद्दे पर
लिखने की बजाय लिखते रहे मुझे रिझाने बाज़ारू शायरी
हम जब भी तुमसे देश-दुनिया पर
शिद्दत से बतियाना चाहे
तुम जल्दी से जल्दी नितांत निजी बातों की तरफ़
मोड़ देते रहे बातों का रुख
मुझे याद है!

मुझे याद है-
जब मैं तल्लीन होती किसी
योजना का प्रारूप बनाने में
या फिर तैयार करने में बस्ती का नक्शा
तुम्हारे भीतर बैठा आदमी
मेरे तन के भूगोल का अध्ययन करने लग जाता ।

अब तुम्हीं बताओ !
ऐसे में भला कैसे तुम्हारे संग-साथ बैठकर हँसू-बोलूँ ?
कैसे मिल-जुलकर
कुछ करने के बारे में सोचूँ?

भला, कैसे तुम्हारे बारे में अच्छा सोचकर
मीठा बतियाऊँ तुमसे?
करूँ कैसे नहीं विरोध
विरोध की पूरी गुंजाईश के बावजूद?

कैसे धीरे से रखूँ वह बात
जो धीरे रखने की मांग नहीं करती !

क्यू माँ के गर्भ से ही ऐसा पैदा हुई मैं ?
बाहामुनी 
तुम्हारे हाथों बने पत्तल पर भरते हैं पेट हज़ारों
पर हज़ारों पत्तल भर नहीं पाते तुम्हारा पेट

कैसी विडम्बना है कि
ज़मीन पर बैठ बुनती हो चटाईयाँ
और पंखा बनाते टपकता है
तुम्हारे करियाये देह से टप....टप...पसीना...!

क्या तुम्हें पता है कि जब कर रही होती हो तुम दातुन
तब तक कर चुके होते हैं सैकड़ों भोजन-पानी
तुम्हारे ही दातुन से मुँह-हाथ धोकर ?

जिन घरों के लिए बनाती हो झाड़ू
उन्हीं से आते हैं कचरे तुम्हारी बस्तियों में ?

इस ऊबड़-खाबड़ धरती पर रहते
कितनी सीधी हो बाहामुनी
कितनी भोली हो तुम
कि जहाँ तक जाती है तुम्हारी नज़र
वहीं तक समझती हो अपनी दुनिया
जबकि तुम नहीं जानती कि तुम्हारी दुनिया जैसी
कई-कई दुनियाएँ शामिल हैं इस दुनिया में

नहीं जानती
कि किन हाथों से गुज़रती
तुम्हारी चीज़ें पहुँच जाती हैं दिल्ली
जबकि तुम्हारी दुनिया से बहुत दूर है अभी दुमका भी !
क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए...
क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए...?
एक तकिया
कि कहीं से थका-मांदा आया और सिर टिका दिया

कोई खूँटी
कि ऊब, उदासी थकान से भरी कमीज़ उतारकर टाँग दी

या आँगन में तनी अरगनी
कि कपड़े लाद दिए
घर
कि सुबह निकला और शाम लौट आया
कोई डायरी
कि जब चाहा कुछ न कुछ लिख दिया

या ख़ामोशी-भरी दीवार
कि जब चाहा वहाँ कील ठोक दी
कोई गेंद
कि जब तब जैसे चाहा उछाल दी
या कोई चादर
कि जब जहाँ जैसे तैसे ओढ-बिछा ली
क्यूँ ? कहो, क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए ?
क्या तुम जानते हो
क्या तुम जानते हो
पुरुष से भिन्न
एक स्त्री का एकांत

घर-प्रेम और जाति से अलग
एक स्त्री को उसकी अपनी ज़मीन
के बारे में बता सकते हो तुम ।

बता सकते हो
सदियों से अपना घर तलाशती
एक बेचैन स्त्री को
उसके घर का पता ।

क्या तुम जानते हो
अपनी कल्पना में
किस तरह एक ही समय में
स्वंय को स्थापित और निर्वासित
करती है एक स्त्री ।

सपनों में भागती
एक स्त्री का पीछा करते
कभी देखा है तुमने उसे
रिश्तो के कुरुक्षेत्र में
अपने...आपसे लड़ते ।

तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के
मन की गाँठे खोलकर
कभी पढ़ा है तुमने
उसके भीतर का खौलता इतिहास

पढ़ा है कभी
उसकी चुप्पी की दहलीज़ पर बैठ
शब्दो की प्रतीक्षा में उसके चेहरे को ।

उसके अंदर वंशबीज बोते
क्या तुमने कभी महसूसा है
उसकी फैलती जड़ो को अपने भीतर ।

क्या तुम जानते हो
एक स्त्री के समस्त रिश्ते का व्याकरण
बता सकते हो तुम
एक स्त्री को स्त्री-दृष्टि से देखते
उसके स्त्रीत्व की परिभाषा

अगर नहीं
तो फिर जानते क्या हो तुम
रसोई और बिस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे में....।
मैंने अपने आंगन में गुलाब लगाए
इस उम्मीद से कि उसमें फूल खिलेंगे
लेकिन अफ़सोस कि उसमें काँटें ही निकले
मैं सींचती रोज़ सुबह-शाम
और देखती रही उसका तेज़ी से बढ़ना।

वह तेज़ी सेबढ़ा भी
पर उसमें फूल नहीं आए
वो फूल जिससे मेरे सपने जुड़े थे
जिससे मै जुड़ी थी

पर लम्बी प्रतीक्षा के बाद भी
उसमें फूल का नहीं आना
मेरे सपनों का मर जाना था।

एक दिन लगा कि मैं
इसे उखाड़कर फेंक दूँ
और इसकी जगह दूसरा फूल लगा दूँ

पर सोचती हूँ बार-बार उखाड़कर फेंक देने
और उसकी जगह नए फूल लगा देने से
क्या मेरी ज़िन्दगी के सारे काँटें निकल जाएंगे?

हक़ीकत तो यह है कि
चाहे जितने फूल बदल दें हम
लेकिन कुछ फूलों की नियति ही ऎसी होती है
जो फूल की जगह काँटें लेकर आते हैं
शायद मेरे आँगन में लगा गुलाब भी
कुछ ऎसा ही है मेरी ज़िन्दगी के लिए।
चुड़का सोरेन से
मैंने देखा था चुड़का सोरेन !
तुम्हारे पिता को अकसर हंड़िया पीकर
पिछवाड़े बँसबिट्टी के पास ओघड़ाए हुए
कठुवाई अँगुलियों से दोना-पत्तल-चटाई बुन
बाज़ार ले जाकर बेचते हुए तुम्हारी माँ को भी
हज़ार-हज़ार कामुक आँखों और सिपाहियों के पंजे झेलती

चिलचिलाती धूप में
ईंट पाथते, पत्थर तोड़ते, मिट्टी काटते हुए भी
किसी बाज के चंगुल में चिड़ियों की तरह
फड़फड़ाते हुए एक बार देखा था उसे

तुम्हारे पिता ने कितनी शराब पी यह तो मैं नहीं जानती
पर शराब उसे पी गई यह जानता है सारा गाँव
इससे बचो चुड़का सोरेन !
बचाओ इसमें डूबने से अपनी बस्तियों को
देखो तुम्हारे ही आँगन में बैठ
तुम्हारे हाथों बना हंड़िया तुम्हें पिला-पिलाकर
कोई कर रहा है तुम्हारी बहनों से ठिठोली
बीड़ी सुलगाने के बहाने बार-बार उठकर रसोई में जाते
उस आदमी की मंशा पहचानो चुड़का सोरेन
जो तुम्हारी औरत से गुपचुप बतियाते बात-बात में दाँत निपोर रहा है
वह कौन-सा जंगली जानवर था चुड़का सोरेन
जो जंगल लकड़ी बीनने गई तुम्हारी बहन मँगली को
उठाकर ले भागा ?

तुम्हारी भाषा में बोलता वह कौन है
जो तुम्हारे भीतर बैठा कुतर रहा है
तुम्हारे विश्वास की जड़ें ?
दिल्ली की गणतन्त्र झाँकियों में
अपनी टोली के साथ नुमाइश बनकर कई-कई बार
पेश किए गए तुम
पर गणतन्त्र नाम की कोई चिड़िया
कभी आकर बैठी तुम्हारे घर की मुँडेर पर ?

क्या तुम जानते हो
पेरिस के भारतीय दूतावास से भागी ललिता उराँवके बारे में ?
जानते हो महानगरों से पनपे
आया बनानेवाली फैक्टरियों का गणित
और घरेलू कामगार महिला संगठन का इतिहास ?
बाँदों की दीपा मुर्मूकी आत्मा आज भी भटक रही है
इन्साफ की गुहार लगाते तुम्हारी बस्तियों में
उसे सुनो चुड़का सोरेन !
उसे गुनो !

कैसा बिकाऊ है तुम्हारी बस्ती का प्रधान
जो सिर्फ़ एक बोतल विदेशी दारू में रख देता है
पूरे गाँव को गिरवी
और ले जाता है कोई लकड़ियों के गट्ठर की तरह
लादकर अपनी गाड़ियों में तुम्हारी बेटियों को
हज़ार-पाँच-सौ हथेलियों पर रखकर
पिछले साल
धनकटनी में खाली पेट बंगाल गयी पड़ोस की बुधनी
किसका पेट सजाकर लौटी है गाँव ?

कहाँ गया वह परदेसी जो शादी का ढोंग रचाकर
तुम्हारे ही घर में तुम्हारी बहन के साथ
साल-दो-साल रहकर अचानक गायब हो गया ?
उस दिलावर सिंह को मिलकर ढूँढ़ों चुड़का सोरेन
जो तुम्हारी ही बस्ती की रीता कुजूर को
पढ़ाने-लिखाने का सपना दिखाकर दिल्ली ले भागा
और आनन्द-भोगियों के हाथ बेच दिया

और हाँ पहचानो !
अपने ही बीच की उस कई-कई ऊँची सैण्डिल वाली
स्टेला कुजूर को भी
जो तुम्हारी भोली-भोली बहनों की आँखों में
सुनहरी ज़िन्दगी का ख़्वाब दिखाकर
दिल्ली की आया बनानेवाली फैक्टरियों में
कर रही है कच्चे माल की तरह सप्लाई
उन सपनों की हक़ीक़त जानो चुड़का सोरेन
जिसकी लिजलिजी दीवारों पर पाँव रखकर
वे भागती हैं बेतहाशा पश्चिम की ओर !

बचाओ अपनी बहनों को
कुँवारी माँ बनी पड़ोस की उस शिलवन्ती के मोहजाल से
पूरी बस्ती को रिझाती जो
बैग लटकाए जाती है बाज़ार
और देर रात गए लौटती है
खुद को बेचकर बाज़ार के हाथों

किसके शिकार में रोज़ जाते हो जंगल ?
किसके ?
शाम घिरते ही अपनी बस्तियों में उतर आए
उन ख़तरनाक शहरी-जानवरों को पहचानो चुड़का सोरेन
पहचानो
पाँव पसारे जो तुम्हारे ही घर में घुसकर बैठे हैं !!
तुम्हारे भोलेपन की ओट में
इस पेचदार दुनिया में रहते
तुम इतने सीधे क्यों हो चुड़का सोरेन ??
कुछ मत कहो सजोनी किस्कू !
बस ! बस !! रहने दो !
कुछ मत कहो सजोनी किस्कू !
मैं जानती हूँ सब
जानती हूँ कि अपने गाँव बागजोरी की धरती पर
जब तुमने चलाया था हल
तब डोल उठा था
बस्ती के माँझी-थान में बैठे देवता का सिंहासन
गिर गई थी पुश्तैनी प्रधानी कुर्सी पर बैठे
मगजहीन माँझी हाड़ामकी पगड़ी
पता है बस्ती की नाक बचाने ख़ातिर
तब बैल बनाकर हल में जोता था
ज़ालिमों ने तुम्हें
खूँटे में बाँधकर खिलाया था भूसा

वे भूल गए
सन्थाल-विद्रोह के समय
जब छोड़ गए थे तुम पर सारा घर-बार
तुम्हीं ने किए थे तब हल जोतने से लेकर
फसल काटने तक के सारे कार्य-व्यापार
तब नहीं गिरी थी उनकी पगड़ी
धरती नहीं पलती थी तब
कटी नहीं थी किसी की नाक
आज धनुष छूते ही तुम्हारे
धरती पलट जाएगी
मच जाएगा प्रलय सजोनी किस्कू
मत छूना धनुष !

घर चुऽ रहा है तो चूने दो
छप्पर छाने मत चढ़ना
जातीय टोटमके बहाने
पहाड़पुर की प्यारी हेम्ब्रमकी तरह
तुम्हारी मदद पाने वाला भी भी करेगा तुमसे जानवराना बलात्कार
और नाक-कान काट धकिया निकाल फेंकेगा घर से बाहर

हक की बात न करो मेरी बहन
मत माँगो पिता की सम्पत्ति पर अधिकार
ज़िक्र मत करो पत्थरों और जंगलों की अवैध कटाई का
सूदखोरों और ग्रामीण डॉक्टरों के लूट की चर्चा न करो बहन
मिहिजाम के गोआकोला की
सुबोधिनी मारण्डीकी तरह तुम भी
अपने मगजहीन पति द्वारा
भरी पंचायत में डायन करार कर दण्डित की जाओगी
माँझी हाड़ाम’ ‘पराणिक’ ‘गुड़ितठेकेदार, महाजन और
जान-गुरुओं के षड्यन्त्र का शिकार बन

इन गूँगे-बहरों की बस्ती में
किसे पुकार रही हो सजोनी किस्कू ?
कहाँ लगा रही हो गुहार ?
यहाँ तो जाहेर और माँझीथान के देवता भी
बिक जाते हैं बोतल भर दारू में
और फिर उन्हें स्वीकार भी तो नहीं है
तुम्हारे हाथों का चढ़ावा
देखो कहीं कोई सुन न ले तुम्हारी फुसफुसाहट
पड़ न जाए कहीं किसी पराणिककी दृष्टि
गूँज उठे न बस्ती में गुड़ितका हाँका
भरी पंचायत में सरेआम
नचा न दी जाओ नंगी पकलू मराण्डीकी तरह
बस रहने दो
कुछ मत कहो सजोनी किस्कू
सब जानती हूँ मैं ! सब जानती हूँ !!