गोदो!
तुम कभी नहीं आते.
हम सभी जानते हैं,
तुम कभी नहीं आओगे.
फिर भी हम सभी तुम्हारी प्रतीक्षा में रहते हैं.
सुनते हैं तुम भेड़ों के मालिक हो
दूर चरागाहों में रहते हो
और तुम्हारी श्वेत —धवल दाढ़ी बहुत भली लगती है.
तुम जब आओगे—
बेकारों को रोज़गार, भूखों को रोटी
उम्र क़ैदियों को छुट्टी, बच्चों को चाकलेट—
और काफ़ी— हाउस में बैठे लोगों के बिल दे जाओगे.
इसीलिए तो—
फ़ुटपाथों पर बैठे मज़दूर
रेल पुलों पर ऊँघ रहे भिखमँगे
जेलों में चक्की पीस रहे क़ैदी
गलियों में खेल रहे बच्चे
काफ़ी हाउसों में मेज़ों पर झुके हुए चेहरे
हर आहट पर चौंक— चौंक जाते हैं
लेकिन...
तुम कभी नहीं आते.
हम सभी जानते हैं,
तुम कभी नहीं आओगे,
फिर भी हम सभी तुम्हारी प्रतीक्षा में रहते हैं
क्योंकि तुम हर रोज़ हमें
कल आने का संदेश भेजते रहते हो.
‘गोदो’ सैम्युल बैकेट के नाटक ‘वैटिंग फ़ार गोदो’ का प्रमुख पात्र है। सारे नाटक में गोदो मंच पर नहीं आता।
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