शनिवार, 21 अगस्त 2010

आँखों में जल रहा है क्यूँ बुझता नहीं धुआँ / गुलज़ार

आँखों में जल रहा है क्यूँ बुझता नहीं धुआँ
उठता तो है घटा-सा बरसता नहीं धुआँ

चूल्हे नहीं जलाये या बस्ती ही जल गई
कुछ रोज़ हो गये हैं अब उठता नहीं धुआँ

आँखों के पोंछने से लगा आँच का पता
यूँ चेहरा फेर लेने से छुपता नहीं धुआँ

आँखों से आँसुओं के मरासिम पुराने हैं
मेहमाँ ये घर में आयें तो चुभता नहीं धुआँ

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

बुड़ बुड़ करते लफ्‍़ज़ों को ; गुलज़ार

बुड़ बुड़ करते लफ्‍़ज़ों को चिमटी से पकड़ो
फेंको और मसल दो पैर की ऐड़ी से ।


अफ़वाहों को खूँ पीने की आदत है।"