प्रेम कविताएँ


तुम्हारे लिए 

उग्रनाथ नागरिक

मैं इससे ज्यादा कुछ
कर ही नहीं सकता था
जितना मैंने किया
तुम्हारे लिए
मैं ज्यादा से ज्यादा
सायकिल ले कर
जहाँ तुम कहती
भाग दौड़ कर सकता था
दूध अंडा ब्रेड
फ़ौरन ला सकता था
या जल्दी से थोड़ी हरी धनिया
तुम्हारे लिए रिक्शा बुला सकता था,
गैस की लाइन में खड़ा हो सकता था,
कपडे प्रेस कर सकता था
तुम्हारी किताबें झाड़ पोछ सकता था
कुर्सी मेज़ इधर से उधर कर सकता था 
बसजो कर सकता था , किया
वह तुम जानती हो
मुझे इस का  कोई
मलाल भी  नहीं है  के
में तुम्हे होंडा से शहर नहीं घुमा सका
और तुम सायकिल पर
बैठ नहीं सकती थी
मुझे कोई शिकायत नहीं
बहुत था जितना तुमसे मिला
मुझेतुम्हारा नैकट्य तुम्हारा  सान्निध्य
इस से ज्यादा मुझे
तुमसे मिल भी नहीं सकता था
क्योंकि इससे ज्यादा मैं
कुछ कर ही नहीं सकता था
जितना मैंने किया
तुम्हारे लिए | |


कहाँ तक हारता हूँ 

ठीक है तुम 
घृणा के बीज बोओ
 मैं तो 
प्रेम बिखराता हूँ
देखता हूँ तुम 
कहाँ तक जीतते ho 
देखता हुनमें
कहाँ तक हारता हूँ!


इस उम्र में प्यार 

 अब इस उम्र में
प्यार एक और 
मोड़ लेता है|
मैं उसके 
गठिया के दर्द  का 
हाल पूछता हूँ|
वह मेरी
 दमा की दवा 
तलाश करती है|


महत्वपूर्ण भूमिका

मैं तुम्हारी जिंदगी में 
महत्वपूर्ण भूमिका 
अदा करुँगी
उसने मुझसे कहा था
विदा होते समय,
अब वह कहाँ है?
कैसी है?
हैया नहीं है?
मुझे नहीं मालूम|
मुझे पता है तो बस
यह कि 
वह मेरी ज़िन्दगी में
महत्वपूर्ण भूमिका 
अदा कर रही है|

माँ का गीत
  अगर तू सूर्य होता
तो दिनभर आसमान में जलता रहता
अगर तू चाँद होता
तो पूर्णिमा से एकम तक
तुझे रोज कसाई के कत्ते से
कटना पड़ता
अगर तू तारा होता मेरे लाल
तो मुझसे कितना दूर होता
अच्छा हुआ
तू बद्रीनारायण हुआ.

रात भर सर्द हवा चलती रही / गुलज़ार


रात भर सर्द हवा चलती रही
रात भर हमने अलाव तापा
मैंने माजी से कई खुश्क सी शाखें काटीं
तुमने भी गुजरे हुये लम्हों के पत्ते तोड़े
मैंने जेबों से निकालीं सभी सूखीं नज़्में
तुमने भी हाथों से मुरझाये हुये खत खोलें
अपनी इन आंखों से मैंने कई मांजे तोड़े
और हाथों से कई बासी लकीरें फेंकी
तुमने पलकों पे नामी सूख गयी थी, सो गिरा दी |
रात भर जो भी मिला उगते बदन पर हमको
काट के दाल दिया जलाते अलावों मसं उसे
रात भर फून्कों से हर लोऊ को जगाये रखा
और दो जिस्मों के ईंधन को जलाए रखा
रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने |


चुपके-चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है / हसरत मोहानी


चुपके-चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है
हमको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है


बा-हज़ाराँ इज़्तराब-ओ-सद हज़ाराँ इश्तियाक़[1]
तुझसे वो पहले-पहल दिल का लगाना याद है


तुझसे मिलते ही वो बेबाक हो जाना मेरा
और तेरा दाँतों में वो उँगली दबाना याद है


खेंच लेना वोह मेरा परदे का कोना दफ़तन[2]
और दुपट्टे से तेरा वो मुँह छुपाना याद है


जानकार सोता तुझे वो क़स्दे पा-बोसी[3] मेरा
और तेरा ठुकरा के सर वो मुस्कराना याद है


तुझको जब तन्हा कभी पाना तो अज़ राहे-लिहाज़
हाले दिल बातों ही बातों में जताना याद है


जब सिवा मेरे तुम्हारा कोई दीवाना न था
सच कहो क्या तुमको भी वो कारख़ाना [4] याद है


ग़ैर की नज़रों से बच कर सबकी मरज़ी के ख़िलाफ़
वो तेरा चोरी छिपे रातों को आना याद है


आ गया गर बस्ल की शब[5] भी कहीं ज़िक्रे-फ़िराक़[6]
वो तेरा रो-रो के मुझको भी रुलाना याद है


दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए
वो तेरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है


देखना मुझको जो बरगशता तो सौ-सौ नाज़ से
जब मना लेना तो फिर ख़ुद रूठ जाना याद है


चोरी-चोरी हम से तुम आ कर मिले थे जिस जगह
मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है


बावजूदे-इद्दआ-ए-इत्तिक़ा[7] ‘हसरत’ मुझे
आज तक अहद-ए-हवस का वो ज़माना याद है