शनिवार, 24 जुलाई 2010

एक आदमी / धूमिल

शाम जब तमाम खुली हुई चीज़ों को
बन्द करती हुई चली जाती है
और दरवाज़े पर
सिटकिनी का रंग बरामदे के
अन्धकार में घुल जाता है
जब मैं काम से नहीं होता
याने की मैं नहीं ढोता
अलमारियों में बन्द किताबों का विवेक
या हाँफते हुए घोड़ों और फेन से तरबतर –
औरतों का गर्म ख़याल :
मेरे पास एक आदमी आता है
('जैसे किसी मकान में अपरिचितों के बीच –

चल रहे हों'

आप कल्पना करें – )
अपनी उपस्थिति पर अनायास खाँसता हुआ
वह एक मर्द है
उसके सूजे हुए चेहरे पर
मौसमों की अंगुलियाँ अलग-अलग

उपटी हुई है

उसकी नाक ऊँची है
और बरौनियाँ सटी हुई हैं
उसने एक मशीन पाल रखी है
जो उसे
चीज़ों के नीलाम में
मदद देती है।

उसकी गर्दन लम्बी है। उसे शक है –
किसी ने रास्ते-भर उसका पीछा किया है
उम्र के सत्ताईस साल उसने भागते हुए जिये हैं
उसके पेशाब पर चींटियाँ रेंगती हैं
उसके प्रेम-पत्रों की आँच में
उसकी प्रेमिकाएँ रोटियाँ सेंकती हैं
अपनी अधूरी इच्छाओं में झुलसता हुआ
वह एक संभावित नर्क है :
वह अपने लिए काफ़ी सतर्क है
और जब वह जवान औरतों के देखता है –
उसकी आँखों में कुत्ते भौंकते हैं
उसका विचार है –
कि उसके मरते ही मनुष्यता –

अंधी हो जाएगी

उसे अपनी सेवाओं पर गर्व है।
देश से प्यार है।
कुर्सी के 'हाते' में उसकी हरकतें

मुझे अच्छी लगती हैं

और अच्छा लगता है मुझे उसका झेंपता हुआ चेहरा
जिससे शालीनता इतनी ज़्यादा टपक चुकी है
कि वहाँ एक तैरता हुआ पत्थर है
सम्भावनाओं में लगातार पहलू बदलता हुआ
अपनी पराजित और जड़-विहीन हँसी पर
अतीत और मानसून का खोखलापन
टाँगता हुआ
जब वह हँसता है उसका मुख
धक्का खायी हुई 'रीम' की तरह
उदास - फैल जाता है
मेरे पास अक्सर एक आदमी आता है
और हर बार
मेरी डायरी के अगले पन्ने पर
बैठ जाता है।


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