शनिवार, 24 जुलाई 2010

रुबाइयाँ / यगाना चंगेज़ी

खटका लगा न हो तो मज़ा क्या गुनाह का।

लज़्ज़्त ही और होती है चोरी के माल में ॥

अल्लाह क़फ़स में आते ही क्या मत पलट गई।

अखिर हमी तो हैं कि फड़कते थे जाल में॥


महराबों में सजदा वाजिब, हुस्न के आगे सजदा हराम।

ऐसे गुनहगारों पै ख़ुदा की मार नहीं तो कुछ भी नहीं॥

दिल से खुदा का नाम लिए जा, काम किए जा दुनिया का।

काफ़िर हो, दींदार हो, दुनियादार नहीं तो कुछ भी नहीं॥


सजदा वह क्या कि सर को झुकाकर उठा लिया।

बन्दा वो है जो बन्दा हो, बन्दानुमा न हो॥

उम्मीदे-सुलह क्या हो, किसी हक़-परस्त से।

पीछे वो क्या हटेगा, जो हद से बढ़ा न हो॥


मज़ा जब है कि रफ़्ता-रफ़्ता उम्मीदें फलें-फूलें।

मगर नाज़िल कोई फ़ज़्ले-इलाही नागहाँ क्यों हो॥

समझ में कुछ नहीं आता पढ़े जाउँ तो क्या हासिल?

नमाज़ों का है कुछ मतलब तो परदेसी ज़बाँ क्यों हो?


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