शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

:बद्रीनारायण की कवितायेँ

माँ का गीत
  अगर तू सूर्य होता
तो दिनभर आसमान में जलता रहता
अगर तू चाँद होता
तो पूर्णिमा से एकम तक
तुझे रोज कसाई के कत्ते से
कटना पड़ता
अगर तू तारा होता मेरे लाल
तो मुझसे कितना दूर होता
अच्छा हुआ
तू बद्रीनारायण हुआ.



मेरे सुग्गे तुम उड़ना 


दग़ा है उड़ना
धोखा है उड़ना
कोई कहे-
छल है,कपट है उड़ना
पर मेरे सुग्गे,
तुम उड़ना


तुम उड़ना
पिंजड़ा हिला
सोने की कटोरी गिरा
अनार के दाने छीं
धूप में करके छेद
हवाओं की सिकड़ी बजा
मेरे सुग्गे, तुम उड़ना।

घोड़े से विनती 

भले नदी में डूब जाओ घोड़े
भले पहाड़ी से कूद जाओ
धरती से ऊपह जाओ घोड़े
मत जाओ उनके घुड़साल में
मत जाओ
आएँगे सुबह और कहेंगे
चलो ! रथ में जुतने चलो
चलो ! कुरूक्षेत्र में नया युद्ध लड़ो
चलो ! फिर से वाटरलू चलो
चलो ! रानी फूलमती चाहती है चूमना
तुम्हारा मुखड़ा
उसके चौसर की चाल चलो
वे आएँगे और कहेंगे
बुद्धराज बहुत देखने लगा है सपने
चलो, उसके सपनों पर खूनदार टाप
ले चलो ‍! 
चलो छातियों पर, चलो दिलों पर
चलो हजारों स्त्रियों को रौंदने चलो
नहीं तो अंत में कहेंगे--
घोड़े चलो ! कसाई के पाट पर चलो

चितकबरे घोड़े के लिए कविता

सच बोलना चितकबरे
नाध से, चाबुक से, एड़ी से सच बोलना
सवारी से तो ज़रूर सच बोलना
जई से, खल्ली से सच-सच बोलना
सच सुने कई दिन हो गए
सच देखे कई दिन हो गए।


दुलारी धिया

पी के घर जाओगी दुलारी धिया
लाल पालकी में बैठ चुक्के-मुक्के
सपनों का खूब सघन गुच्छा
भुइया में रखोगी पाँव
महावर रचे
धीरे-धीरे उतरोगी
सोने की थारी में जेवनार-दुलारी धिया
पोंछा बन
दिन-भर फर्श पर फिराई जाओगी
कछारी जाओगी पाट पर
सूती साड़ी की तरह
पी से नैना ना मिला पाओगी दुलारी धिया
दुलारी धिया
छूट जाएँगी सखियाँ-सलेहरें
उड़ासकर अलगनी पर टाँग दी जाओगी
पी घर में राज करोगी दुलारी धिया
दुलारी धिया, दिन-भर
धान उसीनने की हँड़िया बन
चौमुहे चूल्हे पर धीकोगी
अकेले में कहीं छुप के
मैके की याद में दो-चार धार फोड़ोगी
सास-ससुर के पाँव धो पीना, दुलारी धिया
बाबा ने पूरब में ढूँढा
पश्चिम में ढूँढा
तब जाके मिला है तेरे जोग घर
ताले में कई-कई दिनों तक
बंद कर दी जाओगी, दुलारी धिया
पूरे मौसम लकड़ी की ढेंकी बन
कूटोगी धान
पुरईन के पात पर पली-बढ़ी दुलारी धिया

पी-घर से निकलोगी 
दहेज की लाल रंथी पर
चित्तान लेटे
खोइछे में बाँध देगी
सास-सुहागिन, सवा सेर चावल
हरदी का टूसा
दूब
पी-घर को न बिसारना, दुलारी धिया।

आप उसे फ़ोन करें

आप उसे फ़ोन करें
तो कोई ज़रूरी नहीं कि 
उसका फ़ोन खाली हो 

हो सकता है उस वक़्त 
वह चांद से बतिया रही हो 
या तारों को फ़ोन लगा रही हो 

वह थोड़ा धीरे बोल रही है
सम्भव है इस वक़्त वह किसी भौंरे से 
कह रही हो अपना संदेश 
हो सकता है वह लम्बी, बहुत लम्बी बातों में 
मशगूल हो
हो सकता है
एक कटा पेड़ 
कटने पर होने वाले अपने 
दुखों का उससे कर रहा हो बयान

बाणों से विंधा पखेरू
मरने के पूर्व उससे अपनी अंतिम 
बात कह रहा हो 

आप फ़ोन करें तो हो सकता है 
एक मोहक गीत आपको थोड़ी देर 
चकमा दे और थोड़ी देर बाद 
नेटवर्क बिजी बताने लगे 
यह भी हो सकता है एक छली 
उसके मोबाइल पर फेंक रहा हो 
छल का पासा 

पर यह भी हो सकता है कि एक फूल 
उससे काँटे से होने वाली 
अपनी रोज़-रोज़ की लड़ाई के 
बारे में बतिया रहा हो 
या कि रामगिरि पर्वत से 
चल कोई हवा
उसके फ़ोन से होकर आ रही हो।
या कि चातक, चकवा, चकोर उसे
बार-बार फ़ोन कर रहे हों

यह भी सम्भव है कि 
कोई गृहणी रोटी बनाते वक़्त भी 
उससे बातें करने का लोभ संवरण
न कर पाए 
और आपके फ़ोन से उसका फ़ोन टकराए
आपका फ़ोन कट जाए 

हो सकता है उसका फ़ोन 
आपसे ज़्यादा
उस बच्चे के लिए ज़रूरी हो
जो उसके साथ हँस-हँस 
मलय नील में बदल जाना चाहता हो 
वह गा रही हो किसी साहिल का गीत 
या हो सकता है कोई साहिल उसके 
फ़ोन पर गा रहा हो 
उसके लिए प्रेमगीत 

या कि कोई पपीहा 
कर रहा हो उसके फ़ोन पर 
पीउ-पीउ
आप फ़ोन करें तो कोई ज़रूरी 
नहीं कि 
उसका फ़ोन खाली हो।
अपेक्षाएँ
कई अपेक्षाएँ थीं और कई बातें होनी थीं
एक रात के गर्भ में सुबह को होना था
एक औरत के पेट से दुनिया बदलने का भविष्य लिए
एक बालक को जन्म लेना था
एक चिड़िया में जगनी थी बड़ी उड़ान की महत्त्वाकांक्षाएँ

एक पत्थर में न झुकने वाले प्रतिरोध को और बलवती होना था
नदी के पानी को कुछ और जिद्दी होना था
खेतों में पकते अनाज को समाज के सबसे अन्तिम आदमी तक
पहुँचाने का सपना देखना था

पर कुछ नहीं हुआ
रात के गर्भ में सुबह के होने का भ्रम हुआ
औरत के पेट से वैसा बालक पैदा न हुआ
न जन्मी चिड़िया के भीतर वैसी महत्त्वाकांक्षाएँ

न पत्थर में उस कोटि का प्रतिरोध पनप सका
नदी के पानी में जिद्द तो कहीं दिखी ही नहीं

खेत में पकते अनाजों का
बीच में ही टूट गया सपना
अब क्या रह गया अपना ।

कौतुक-कथा
धूप चाहती थी, बारिश चाहती थी, चाहते थे ठेकेदार 
कि यह बेशकीमती पेड़ सूख जाए 
चोर, अपराधी, तस्कर, हत्यारे, मंत्री के रिश्तेदार 
फिल्म ऐक्टर, पुरोहित, वे सब जो बेशकीमती लकड़ियों के 
और इन लकड़ियों पर पागल हिरण के सीगों के व्यापार 
में लगे थे

पेड़ अजब था, 
पेड़ सूखता था और सूखते-सूखते फिर हरा हो जाता था
एक चिड़िया जैसे ही आकर बैठती थी
सूखा पेड़ हरा हो जाता था
उसमें आ जाते थे नर्म, कोमल नए-नए पत्ते 
और जैसे ही चिड़िया जाती थी दिन दुनियादारी, दानापानी की तलाश में 
फिर वह सूख जाता था
वे ख़ुश होते थे, ख़ुशी में गाने लगते थे उन्मादी गीत 
और आरा ले उस वृक्ष को काटने आ जाते थे 
वे समझ नहीं पा रहे थे, ऐसा क्यों हो रहा है, कैसे हो रहा है
एक दिन गहन शोध कर उनके दल के एक सिद्धांतकार ने गढ़ी 
सैद्धांतिकी 
कि पेड़ को अगर सुखाना है तो इस चिड़िया को मारना होगा
फिर क्या था 
नियुक्त कर दिये गए अनंत शिकारी 
कई तोप साज दिये गए
बिछा दिए गए अनेक जाल 
वह आधी रात का समय था
दिन बुधवार था, जंगल के बीच एक चमकता बाज़ार था
पूर्णिमा की चांदनी में पेड़ से मिलन की अनंत कामना से आतुर 
आती चिड़िया को कैद कर लिया गया
उसे अनेक तीरों से बींधा गया
उसे ठीहे पर रख भोथरे चाकू से बार-बार काटा गया 
उसे तोप की नली में बांध कर तोप से दागा गया
सबने सुझाए तरह तरह के तरीके, तरह तरह के तरीकों
से उसे मारा गया
इतने के बाद भी जब सब उसे मिल मारने में हो गए असफल 
तो उनमें से एक कोफ़्त में आ
उसे साबुत कच्चा निगल गया
चिड़िया उड़ गई, उड़ गई चिड़िया फुर्र से 
उसके पेट से 
उसे हतने के व्यवसाय में लगे लोग काफ़ी बाद में समझ पाए 
कि यह चिड़िया सिर्फ चिड़िया न होकर 
स्मृतियों का पुंज है
जिसे न तो हता जा सकता है
न मारा जा सकता है
न ही जलाया जा सकता है

शून्य में संसार- पागल मन /मंगलेश डबराल



पागलों का एक वर्णन
पागल होने का कोई नियम नहीं है
इसलिए तमाम पागल अपने अद्वितीय तरीके से पागल होते हैं
स्वभाव में एक दूसरे से अलग
व्यवहार में अकसर एक दूसरे से विपरीत
समांतर रेखाओं जैसे फैलते हैं उनके संसार
वे भूल चुके होते हैं कि पागल होने से
बचे रहने के कई नियम हैं
पुस्तकों में वर्णित है नुस्ख़े, सुंदर पुष्ट शरीरों के
जिनमें निवास करते हैं स्वस्थ मस्तिष्क
चेहरे के दर्पण में झलकते हुए
जिन्हें हासिल करने के लिए ईजाद किये जाते हैं
नये नये उपाय

जो अपना मानसिक स्वास्थ्य हमेशा के लिए खो चुके होते हैं
वे अचानक प्रकट होते हैं
सूखी रोटियों की एक पोटली के साथ
कहीं पर विकराल कहीं निरीह
वे नहीं जानते कि वे कहां से आये
उनका कहीं जन्म हुआ या नहीं
उनके होने पर ख़ुशी मनायी गयी या नहीं
और एक खंभे से दूसरे खंभे तक
इस शाश्वत दौड़ का अर्थ क्या है
नुक्कड़ पर बैठा एक पागल
दिन-भर गालियां देता है प्रधानमंत्री को
पटरी पर खड़ा हुआ जो पागल
व्यवस्था से एक लंबा युद्ध छेड़े हुए है
दिन-भर वह बनाता है अपनी रणनीति
एक पागल औरत भीड़ में पहचान लेती है
अपने धोखेबाज़ प्रेमी को
और क्रोध में उस पर अदृश्य पत्थर फेंकती है
एक प्राचीन पागल चौराहे को गुफा मानकर
रहता चला आता है
वह बताता है मनुष्य के कारनामों का रक्तरंजित इतिहास
तरह-तरह के इशारे करते पागलों के बीच से
अकसर गुज़रते हैं स्वस्थ मस्तिष्क के लोग
उनकी आंखों में थोड़ा-सा झांककर
एकाएक सहमते हुए आगे बढ़ जाते हैं
जैसे झटक देते हों अपने जीवन का कोई अंश
अपना कोई क्रोध कोई प्रेम कोई विरोध
अपनी ही कोई आग
जो उनसे अलग होकर अब भटकती है
व्यस्त चौराहों और नुक्कड़ों पर
कपड़े फाड़े बाल बिखराये सूखी रोटियां संभाले हुए
कोई नहीं जानता आधी रात के बाद
वे कहां ग़ायब हो जाते हैं
कौन-से दरवाज़े उनके लिए खुलते हैं
और उन्हें अंदर आने दिया जाता है
शायद वे किसी घर में दस्तक देते हों
पुरानी दोस्ती का हवाला देते हुए बैठ जाते हों
कहते हुए हमें कुछ देर शरण दो
हम एक राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय षड़यंत्र के शिकार हैं
या फिर वे सिर्फ एक कप चाय की फ़रमाइश करते हों
रोज़मर्रा के काम पर निकलने से पहले

भागी हुई लड़कियां / आलोक धन्वा


एक


घर की जंजीरें
कितना ज्यादा दिखाई पड़ती हैं
जब घर से कोई लड़की भागती है



क्या उस रात की याद आ रही है
जो पुरानी फिल्मों में बार-बार आती थी
जब भी कोई लड़की घर से भगती थी?
बारिश से घिरे वे पत्थर के लैम्पपोस्ट
महज आंखों की बेचैनी दिखाने भर उनकी रोशनी?



और वे तमाम गाने रजतपरदों पर दीवानगी के
आज अपने ही घर में सच निकले!



क्या तुम यह सोचते थे
कि वे गाने महज अभिनेता-अभिनेत्रियों के लिए
रचे गए?
और वह खतरनाक अभिनय
लैला के ध्वंस का
जो मंच से अटूट उठता हुआ
दर्शकों की निजी जिन्दगियों में फैल जाता था?



दो



तुम तो पढ कर सुनाओगे नहीं
कभी वह खत
जिसे भागने से पहले
वह अपनी मेज पर रख गई
तुम तो छुपाओगे पूरे जमाने से
उसका संवाद
चुराओगे उसका शीशा उसका पारा
उसका आबनूस
उसकी सात पालों वाली नाव
लेकिन कैसे चुराओगे
एक भागी हुई लड़की की उम्र
जो अभी काफी बची हो सकती है
उसके दुपट्टे के झुटपुटे में?



उसकी बची-खुची चीजों को
जला डालोगे?
उसकी अनुपस्थिति को भी जला डालोगे?
जो गूंज रही है उसकी उपस्थिति से
बहुत अधिक
सन्तूर की तरह
केश में


तीन



उसे मिटाओगे
एक भागी हुई लड़की को मिटाओगे
उसके ही घर की हवा से
उसे वहां से भी मिटाओगे
उसका जो बचपन है तुम्हारे भीतर
वहां से भी
मैं जानता हूं
कुलीनता की हिंसा !



लेकिन उसके भागने की बात
याद से नहीं जाएगी
पुरानी पवनचिक्कयों की तरह



वह कोई पहली लड़की नहीं है
जो भागी है
और न वह अन्तिम लड़की होगी
अभी और भी लड़के होंगे
और भी लड़कियां होंगी
जो भागेंगे मार्च के महीने में



लड़की भागती है
जैसे फूलों गुम होती हुई
तारों में गुम होती हुई
तैराकी की पोशाक में दौड़ती हुई
खचाखच भरे जगरमगर स्टेडियम में



चार



अगर एक लड़की भागती है
तो यह हमेशा जरूरी नहीं है
कि कोई लड़का भी भागा होगा



कई दूसरे जीवन प्रसंग हैं
जिनके साथ वह जा सकती है
कुछ भी कर सकती है
महज जन्म देना ही स्त्री होना नहीं है



तुम्हारे उस टैंक जैसे बंद और मजबूत
घर से बाहर
लड़कियां काफी बदल चुकी हैं
मैं तुम्हें यह इजाजत नहीं दूंगा
कि तुम उसकी सम्भावना की भी तस्करी करो



वह कहीं भी हो सकती है
गिर सकती है
बिखर सकती है
लेकिन वह खुद शामिल होगी सब में
गलतियां भी खुद ही करेगी
सब कुछ देखेगी शुरू से अंत तक
अपना अंत भी देखती हुई जाएगी
किसी दूसरे की मृत्यु नहीं मरेगी



पांच



लड़की भागती है
जैसे सफेद घोड़े पर सवार
लालच और जुए के आरपार
जर्जर दूल्हों से
कितनी धूल उठती है



तुम
जो
पत्नियों को अलग रखते हो
वेश्याओं से
और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो
पत्नियों से
कितना आतंकित होते हो
जब स्त्री बेखौफ भटकती है
ढूंढती हुई अपना व्यक्तित्व
एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों
और प्रमिकाओं में !



अब तो वह कहीं भी हो सकती है
उन आगामी देशों में
जहां प्रणय एक काम होगा पूरा का पूरा


छह


कितनी-कितनी लड़कियां
भागती हैं मन ही मन
अपने रतजगे अपनी डायरी में
सचमुच की भागी लड़कियों से
उनकी आबादी बहुत बड़ी है



क्या तुम्हारे लिए कोई लड़की भागी?



क्या तुम्हारी रातों में
एक भी लाल मोरम वाली सड़क नहीं?



क्या तुम्हें दाम्पत्य दे दिया गया?
क्या तुम उसे उठा लाए
अपनी हैसियत अपनी ताकत से?
तुम उठा लाए एक ही बार में
एक स्त्री की तमाम रातें
उसके निधन के बाद की भी रातें !



तुम नहीं रोए पृथ्वी पर एक बार भी
किसी स्त्री के सीने से लगकर



सिर्फ आज की रात रुक जाओ
तुमसे नहीं कहा किसी स्त्री ने
सिर्फ आज की रात रुक जाओ
कितनी-कितनी बार कहा कितनी स्त्रियों ने दुनिया भर में
समुद्र के तमाम दरवाजों तक दौड़ती हुई आयीं वे



सिर्फ आज की रात रुक जाओ
और दुनिया जब तक रहेगी
सिर्फ आज की रात भी रहेगी

शनिवार, 24 जुलाई 2010

साधो ये मुरदों का गांव / कबीर

साधो ये मुरदों का गांव

पीर मरे पैगम्बर मरिहैं

मरि हैं जिन्दा जोगी

राजा मरिहैं परजा मरिहै

मरिहैं बैद और रोगी

चंदा मरिहै सूरज मरिहै

मरिहैं धरणि आकासा

चौदां भुवन के चौधरी मरिहैं

इन्हूं की का आसा

नौहूं मरिहैं दसहूं मरिहैं

मरि हैं सहज अठ्ठासी

तैंतीस कोट देवता मरि हैं

बड़ी काल की बाजी

नाम अनाम अनंत रहत है

दूजा तत्व न होइ

कहत कबीर सुनो भाई साधो

भटक मरो ना कोई


मन ना रँगाए, रँगाए जोगी कपड़ा / कबीर

मन ना रँगाए, रँगाए जोगी कपड़ा ।।

आसन मारि मंदिर में बैठे, ब्रम्ह-छाँड़ि पूजन लगे पथरा ।।


कनवा फड़ाय जटवा बढ़ौले, दाढ़ी बाढ़ाय जोगी होई गेलें बकरा ।।


जंगल जाये जोगी धुनिया रमौले काम जराए जोगी होए गैले हिजड़ा ।।


मथवा मुड़ाय जोगी कपड़ो रंगौले, गीता बाँच के होय गैले लबरा ।।


कहहिं कबीर सुनो भाई साधो, जम दरवजवा बाँधल जैबे पकड़ा ।।


सोमनाथ / कैफ़ी आज़मी

बुतशिकन कोई कहीं से भी ना आने पाये
हमने कुछ बुत अभी सीने में सजा रक्खे हैं
अपनी यादों में बसा रक्खे हैं

दिल पे यह सोच के पथराव करो दीवानो
कि जहाँ हमने सनम अपने छिपा रक्खे हैं
वहीं गज़नी के खुदा रक्खे हैं

बुत जो टूटे तो किसी तरह बना लेंगे उन्हें
टुकड़े टुकड़े सही दामन में उठा लेंगे उन्हें
फिर से उजड़े हुये सीने में सजा लेंगे उन्हें

गर खुदा टूटेगा हम तो न बना पायेंगे
उस के बिखरे हुये टुकड़े न उठा पायेंगे
तुम उठा लो तो उठा लो शायद
तुम बना लो तो बना लो शायद

तुम बनाओ तो खुदा जाने बनाओ क्या
अपने जैसा ही बनाया तो कयामत होगी
प्यार होगा न ज़माने में मुहब्बत होगी
दुश्मनी होगी अदावत होगी
हम से उस की न इबादत होगी

वह्शते-बुत शिकनी देख के हैरान हूँ मैं
बुत-परस्ती मिरा शेवा है कि इंसान हूँ मैं
इक न इक बुत तो हर इक दिल में छिपा होता है
उस के सौ नामों में इक नाम खुदा होता है


हाथ आकर लगा गया कोई / कैफ़ी आज़मी


हाथ आकर लगा गया कोई

मेरा छप्पर उठा गया कोई


लग गया इक मशीन में मैं

शहर में ले के आ गया कोई


मैं खड़ा था कि पीठ पर मेरी

इश्तिहार इक लगा गया कोई


यह सदी धूप को तरसती है

जैसे सूरज को खा गया कोई


ऐसी मंहगाई है कि चेहरा भी

बेच के अपना खा गया कोई


अब वो अरमान हैं न वो सपने

सब कबूतर उड़ा गया कोई


वोह गए जब से ऐसा लगता है

छोटा मोटा खुदा गया कोई


मेरा बचपन भी साथ ले आया

गांव से जब भी आ गया कोई


इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े / कैफ़ी आज़मी

इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े
हँसने से हो सुकून ना रोने से कल पड़े

जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े

एक तुम के तुम को फ़िक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़ है
एक हम के चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े

मुद्दत के बाद उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह
जी ख़ुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े

साक़ी सभी को है ग़म-ए-तश्नालबी मगर
मय है उसी के नाम पे जिस के उबल पड़े

अज़ा में बहते थे आँसू यहाँ / कैफ़ी आज़मी

अज़ा में बहते थे आँसू यहाँ, लहू तो नहीं
ये कोई और जगह है ये लखनऊ तो नहीं

यहाँ तो चलती हैं छुरिया ज़ुबाँ से पहले
ये मीर अनीस की, आतिश की गुफ़्तगू तो नहीं

चमक रहा है जो दामन पे दोनों फ़िरक़ों के
बग़ौर देखो ये इस्लाम का लहू तो नहीं

दूसरा वनवास (कविता) / कैफ़ी आज़मी

राम बनवास से जब लौटकर घर में आये
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये
रक्से-दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
छह दिसम्बर को श्रीराम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आये

धर्म क्या उनका है, क्या जात है ये जानता कौन
घर ना जलता तो उन्हे रात में पहचानता कौन
घर जलाने को मेरा, लोग जो घर में आये

शाकाहारी हैं मेरे दोस्त, तुम्हारे खन्ज़र
तुमने बाबर की तरफ़ फ़ैंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की खता, ज़ख्म जो सर में आये

पांव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
कि नज़र आये वहां खून के गहरे धब्बे
पांव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राम ये कहते हुए अपने दुआरे से उठे
राजधानी की फज़ा आई नहीं रास मुझे
छह दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे


शैख़ जी थोड़ी सी पीकर आइये / सुदर्शन फ़ाकिर

शैख़ जी थोड़ी सी पीकर आइये
मय है क्या शय फिर हमें बतलाइये

आप क्यों हैं सारी दुनिया से ख़फ़ा
आप भी दुश्मन मेरे बन जाइये

क्या है अच्छा क्या बुरा बंदा-नवाज़
आप समझें तो हमें समझाइये

जाने दिजे अक़्ल की बातें जनाब
दिल की सुनिये और पीते जाइये

उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से / कुँअर बेचैन

जितनी दूर नयन से सपना
जितनी दूर अधर से हँसना
बिछुए जितनी दूर कुँआरे पाँव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से

हर पुरवा का झोंका तेरा घुँघरू
हर बादल की रिमझिम तेरी भावना
हर सावन की बूंद तुम्हारी ही व्यथा
हर कोयल की कूक तुम्हारी कल्पना

जितनी दूर ख़ुशी हर ग़म से
जितनी दूर साज सरगम से
जितनी दूर पात पतझर का छाँव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से

हर पत्ती में तेरा हरियाला बदन
हर कलिका के मन में तेरी लालिमा
हर डाली में तेरे तन की झाइयाँ
हर मंदिर में तेरी ही आराधना

जितनी दूर प्यास पनघट से
जितनी दूर रूप घूंघट से
गागर जितनी दूर लाज की बाँह से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से

कैसे हो तुम, क्या हो, कैसे मैं कहूँ
तुमसे दूर अपरिचित फिर भी प्रीत है
है इतना मालूम की तुम हर वस्तु में
रहते जैसे मानस् में संगीत है

जितनी दूर लहर हर तट से
जितनी दूर शोख़ियाँ लट से
जितनी दूर किनारा टूटी नाव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से


चुपके-चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है / हसरत मोहानी

चुपके-चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है
हमको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है

बा-हज़ाराँ इज़्तराब-ओ-सद हज़ाराँ इश्तियाक़[1]
तुझसे वो पहले-पहल दिल का लगाना याद है

तुझसे मिलते ही वो बेबाक हो जाना मेरा
और तेरा दाँतों में वो उँगली दबाना याद है

खेंच लेना वोह मेरा परदे का कोना दफ़तन[2]
और दुपट्टे से तेरा वो मुँह छुपाना याद है

जानकार सोता तुझे वो क़स्दे पा-बोसी[3] मेरा
और तेरा ठुकरा के सर वो मुस्कराना याद है

तुझको जब तन्हा कभी पाना तो अज़ राहे-लिहाज़
हाले दिल बातों ही बातों में जताना याद है

जब सिवा मेरे तुम्हारा कोई दीवाना न था
सच कहो क्या तुमको भी वो कारख़ाना [4] याद है

ग़ैर की नज़रों से बच कर सबकी मरज़ी के ख़िलाफ़
वो तेरा चोरी छिपे रातों को आना याद है

आ गया गर बस्ल की शब[5] भी कहीं ज़िक्रे-फ़िराक़[6]
वो तेरा रो-रो के मुझको भी रुलाना याद है

दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए
वो तेरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है

देखना मुझको जो बरगशता तो सौ-सौ नाज़ से
जब मना लेना तो फिर ख़ुद रूठ जाना याद है

चोरी-चोरी हम से तुम आ कर मिले थे जिस जगह
मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है

बावजूदे-इद्दआ-ए-इत्तिक़ा[7] ‘हसरत’ मुझे
आज तक अहद-ए-हवस का वो ज़माना याद है