मंगलवार, 28 जून 2011

दीप्ति मिश्र की ग़ज़लें




दुखती रग पर उंगली रखकर, पूछ रहे हो कैसी हो?

तुमसे ये उम्मीद नहीं थी, दुनिया चाहे जैसी हो.

एक तरफ मैं बिल्कुल तन्हा, एक तरफ दुनिया सारी,

अब तो जंग छिड़ेगी खुलकर, ऐसी हो या वैसी हो.

जलते रहना चलते रहना, तो उसकी मज़बूरी है

सूरज ने कब चाहा था, उसकी क़िस्मत ऐसी हो.

मुझको पार लगाने वाले, जाओ तुम तो पार लगो

मैं तुमको भी ले डूबुंगी कश्ती चाहे जैसी हो.

ऊपर वाले अपनी जन्नत, और किसी को दे देना

मैं अपने दोजख में ख़ुश हूँ, जन्नत चाहे जैसी हो.

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तुम्हें किसने कहा था तुम मुझे चाहो, बताओ तो,

जो दम भरते हो चाहत का, तो चाहत को निभाओ तो.

दिए जाते हो ये धमकी गया तो फिर न आऊँगा,

कहाँ से आओगे पहले मेरी दुनिया से जाओ तो.

मेरी चाहत भी है तुमको, और अपना घर भी प्यारा है,

निपट लूँगी मैं हर ग़म से, तुम अपना घर बचाओ तो.

तुम्हारे सच की सच्चाई पे मैं क़ुर्बान हो जाऊँ

पर अपना सच बयाँ करने की तुम हिम्मत जुटाओ तो.

फ़क़त इन बद्दुआओं से बुरा मेरा कहाँ होगा

मुझे बर्बाद करने का ज़रा बीड़ा उठाओ तो.



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बेहद बेचैनी है लेकिन मक़सद ज़ाहिर कुछ भी नहीं

पाना- खोना, हँसना - रोना क्या है आख़िर कुछ भी नहीं

अपनी - अपनी क़िस्मत सबकी, अपना- अपना हिस्सा है

जिस्म की ख़ातिर लाखों सामां,रूह की ख़ातिर कुछ भी नहीं

उसकी बाज़ी , उसके मोहरे , उसकी चालें , उसकी जीत

उसके आगे सारे क़ादिर , माहिर , शातिर कुछ भी नहीं



उसका होना या ना होना , ख़ुद में ज़ाहिर होता है

गर वो है तो भीतर ही है वरना बज़ाहिर कुछ भी नहीं



दुनिया से जो पाया उसने दुनिया ही को सौंप दिया

ग़ज़लें-नज्में दुनिया की हैं क्या है शाइर कुछ भी नहीं

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मैं घुटनें टेक दूँ इतना कभी मजबूर मत करना

खुदाया थक गई हूँ पर थकन से चूर मत करना


मुझे मालूम है की मैं किसी की हो नहीं सकती

तुम्हारा साथ गर माँगू तो तुम मंज़ूर मत करना


लो तुम भी देखलो की मैं कहाँ तक देख सकती हूँ

ये आँखें तुम को देखें तो इन्हें बेनूर मत करना



यहाँ की हूँ वहाँ की हूँ ख़ुदा जाने कहाँ की हूँ

मुझे दूरी से क़ुर्बत है ये दूरी दूर मत करना





न घर अपना न दर अपना जो कमियाँ हैं वो कमियाँ हैं

अधूरेपन की आदी हूँ मुझे भरपूर मत करना



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हम बुरे हैं अगर तो बुरे ही भले ,अच्छा बनने का कोई इरादा नहीं

साथ लिक्खा है तो साथ निभ जाएगा ,अब निभाने का कोई भी वादा नहीं



क्या सही क्या ग़लत सोच का फेर है ,एक नज़रिया है जो बदलता भी है

एक सिक्के के दो पहलुओं की तरह फ़र्क सच-झूठ में कुछ ज़ियादा नहीं



रूह का रुख़ इध जिस्म का रुख़ उधर अब ये दोनों मिले तो मिलें किसतरह

रूह से जिस्म तक जिस्म से रूह तक रास्ता एक भी सीधा-सादा नहीं



जो भी समझे समझता रहे ये जहाँ,अपने जीने का अपना ही अंदाज़ है

हम बुरे या भले जो भी हैं वो ही हैं ,हमनें ओढ़ा है कोई लबादा नहीं



ज़िन्दगी अब तू ही कर कोई फ़ैसल ,अपनी शर्तों पे जीने की क्या है सज़ा

तेरे हर रूप को हौसले से जिया पर कभी बोझ सा तुझको लादा नहीं

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कब से अपनी खोज में हूँ मुब्तला मैं

कोई बतलाए कहाँ हूँ गुमशुदा मैं



देखती हूँ जब भी आईने में ख़ुद को

सोचती हूँ कौन हूँ नाआशना मैं



ये नहीं वो भी नहीं कोई नहीं ना

ना-नहीं का मुस्तकिल एक सिलसिला मैं

कितने टुकड़ों में अकेली जी रही हूँ

मैं ही मंज़िल , मैं ही रस्ता , फ़ासला मैं



वक़्त के काग़ज़ पे ख़ुद को लिख रही हूँ

शायराना ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा मैं



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जिससे तुमने ख़ुद को देखा ,हम वो एक नज़रिया थे

हम से ही अब क़तरा हो तुम ,हम से ही तुम दरिया थे



सारा - का - सारा खारापन हमने तुसे पाया है

तुमसे मिलने से पहले तो , हम एक मीठा दरिया थे



मखमल की ख्वहिश थी तुमको ,साथ भला कैसे निभता

हम तो संत कबीरा की झीनी सी एक चदरिया थे



अब समझे ,क्यों हर चमकीले रंग से मन हट जाता था

बात असल में ये थी , हम ही सीरत से केसरिया थे



जोग लिया फिर ज़हर पीया , मीरा सचमुच दीवानी थी

तुम अपनी पत्नी, गोपी और राधा के सांवरिया थे

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वो एक दर्द जो मेरा भी है , तुम्हारा भी

वही सज़ा है मगर है वही सहारा भी



तेरे बग़ैर कोई पल गुज़र नहीं पाता

तेरे बग़ैर ही इक उम्र को गुज़ारा भी



तुम्हारे साथ कभी जिसने बेवाफई की

किसी तरहा न हुआ फिर वो दिल हमारा भी



तेरे सिवा न कोई मुझसे जीत पाया था

तुझी से मात मिली है मुझे दुबारा भी



अभी - अभी तो जली हूँ , अभी न छेड़ मुझे

अभी तो राख में होगा कोई शरारा भी
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वो नहीं मेरा मगर उससे मुहब्बत है तो है


ये अगर रस्मों, रिवाज़ों से बग़ावत है तो है



सच को मैंने सच कहा, जब कह दिया तो कह दिया

अब ज़माने की नज़र में ये हिमाकत है तो है



कब कहा मैंने कि वो मिल जाये मुझको, मैं उसे

गर न हो जाये वो बस इतनी हसरत है तो है



जल गया परवाना तो शम्मा की इसमें क्या ख़ता

रात भर जलना-जलाना उसकी किस्मत है तो है



दोस्त बन कर दुश्मनों- सा वो सताता है मुझे

फिर भी उस ज़ालिम पे मरना अपनी फ़ितरत है तो है



दूर थे और दूर हैं हरदम ज़मीनों-आसमाँ

दूरियों के बाद भी दोनों में क़ुर्बत है तो है
---------उसने कितनी सादगी से आज़माया है मुझे


है मेरा दुश्मन मगर मुन्सिफ़ बनाया है मुझे



मैं भला उस शख़्स की मासूमियत को क्या कहूँ

कहके मुझको इक लुटेरा घर बुलाया है मुझे



उसके भोलेपन पर मिट न जाऊँ तो मैं क्या करूँ

किस कदर नफ़रत है मुझसे यह बताया है मुझे



मुझको उसकी दुश्मनी पे नाज़ क्यों न हो कहो

है भरोसा मुझपे ज़ालिम ने जताया है मुझे



वो कोई इल्ज़ाम दे देता मुझे तो ठीक था

उसकी चुप ने और भी ज़्यादा सताया है मुझे



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ऐसा नहीं कि उनसे मोहब्बत नहीं रही


बस ये हुआ कि साथ की आदत नहीं रही



दुनिया के काम से उन्हें छुट्टी नहीं मिली

हमको भी उनके वास्ते फ़ुर्सत नहीं रही



कुछ उनको इस जहाँ का चलन रास आ गया

कुछ अपनी भी वो पहले सी फ़ितरत नहीं रही



उनसे कोई उम्मीद करें भी तो क्या भला

जिनसे किसी तरह की शिक़ायत नहीं रही

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